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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘हां! एक बात पर तो मैं भी विस्यम करता रह गया था। यह तब की बात है जब तेजकृष्ण नज़ीर के साथ भाग गया था। इसने एक भी शब्द शोक अथवा पश्चात्ताप का कहे बिना मुझे रेल के स्टेशन तक पहुंचा देने को कहा था। यह उस समय भी ऐसे प्रतीत होती थी मानो इसके चित्त में किसी के प्रति न तो रोष था और न ही अपने किये पर इसे शोक था।’’
‘‘परन्तु आपने प्रोफेसर साहब से क्या कहा था और उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई हैं?’’
‘‘मैंने उसे अनेक प्रकार से समझाया था कि विवाह में मुख्य बात यौन सम्बन्ध है और वासनाओं के प्रवाह के लिए एक साफ-सुथरी ‘चैनल’ (प्रकाहिक) बनाना है और वह मिस्टर साइमन इस लड़की के लिए बना नहीं सकेंगे। उनके सन्तान हो नहीं सकेगी और उनकी मृत्यु के उपरान्त मैत्रेयी बेचारी संसार में कटी पतंग की भांति रह जाएगी।
‘‘प्रोफेसर साहब ढाई घन्टे भर मेरी बातों को सुनते रहे और उत्तर में एक शब्द भी नहीं कहा।’’
‘‘जब घड़ी में समय देख मैंने वहां से आने की स्वीकृति मांगी तो वह उठ कर मेरे साथ बाहर तक आए। अब उसने एक ही वाक्य में मेरे पूर्ण वार्तालाप का उत्तर दे दिया। वह बोले, ‘मिस्टर बागड़िया! यद्यपि मैं आपके कथन को ठीक नहीं समझता, इस पर भी मैं वचन देता हूं कि मैं आप द्वारा कही बात पर विचार करूंगा।’’
‘‘मैंने धन्यवाद किया। इस पर वह बोला, ‘मैं समझता हूं कि आप हमारे मन की भावनाओं को समझ नहीं सके। यदि समझ गए होते तो आज आप यहां आने का कष्ट न करते। मैं आशा करता हूं कि विवाह पर आप हमें आशीर्वाद देने आयेंगे।’’
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