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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘बन्दीगृह में मुझ जैसे दो सौ से ऊपर बन्दी थे। सप्ताह में एक बार हमें जेल के अहाते में एकत्रित कर हमारी गिनती होती थी और पीछे हमें पुनः पृथक्-पृथक् मण्डलियों में जेल में बन्द कर दिया जाता था।’’
‘‘खाने को बहुत घटिया और मात्रा में बहुत कम खुराक मिलती थी। हम पन्द्रह लोग एक ही बड़े कमरे में बन्द थे। मेरे उस कमरे के साथी प्रायः शरीफ भारतीय नागरिक थे। उनका अपराध यह था कि न तो वे भयभीत हो घरों को छोड़ भागे थे और न ही चोर-डाकुओं के साथ मिल कर लूट-मार मचाते थे। अतः उन भले लोगों को चोर-डाकुओं ने जेल में बन्द करा रखा था।’’
‘‘मैं जब अपनी अवस्था देखता था तो उन पर विश्वास किये बिना नहीं रह सकता था कि वे भी मेरी भांति ही निरपराध है।’’
‘‘प्रति पन्द्रह-बीस दिन के उपरान्त एक मजिस्ट्रेट आ जाता था और हमारे बयान लेने लगता था। दो-तीन बार तो हमने बहुत परिश्रम और भल-मनसाहत से बयान दिये, परन्तु जब यह बात बार-बार होने लगी तो मैं हट गया। इस समय तक मुझे गोहाटी जेल में आये चार महीने हो चुके थे। एक दिन मजिस्ट्रेट आया तो मैंने पूछा, ‘आप कौन हैं?’’
‘वह बोला, ‘मैं यहां पर स्पेशल मजिस्ट्रेट नियुक्त हुआ हूं।’
‘मैं अपने बयान पाँच बार दे चुका हूं। मुझे यह तो बताया नहीं गया कि मुझे क्यों पकड़ा गया है और जो कुछ मैं अपने विषय में बताता हूं, बार-बार उसे पूछने से क्या लाभ होगा?’’
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