|
उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘तो तुम जा रही हो मां?’’
‘‘हां! मैं उसे आशीर्वाद देने और ‘वैडिंग प्रेज़ेण्ट’ देने जा रही हूं। वैसे निमन्त्रण तो तुम्हारे पिता जी को भी है, परन्तु वह नहीं जा रहे।’’
‘‘तो मैं चलूं तुम्हारे साथ?’’
‘हां, चल सकते हो यदि उसको बधाई देने का विचार रखते हो। एक सप्ताह हुआ है कि मैं और तुम्हारे पिता ऑक्सफोर्ड गये थे और उसे यह विवाह को न करने के लिए कह यह आये थे। परन्तु वह नहीं मानी थी। उसका यही कहना था कि उसने सब कुछ विचार कर ही इस विवाह का निश्चय किया है और अब वह उस निश्चय से बदलने में कोई कारण नहीं देखती।
‘‘वैसे मैं यह विवाह पसन्द नहीं करती। दोनों की आयु में बहुत बड़ा अन्तर है। परन्तु मैत्रेयी के दृढ़ संकल्प और उसकी स्थिर बुद्धि को देख मैं उसकी प्रशंसक ही हूं।’’
‘‘मां! तो उसे बधाई देने चलना चाहिए। उसके शोध प्रबन्ध का क्या हुआ है?’’
‘‘वह अब ‘डाक्टरेट’ प्राप्त कर चुकी है और अभी उसी विश्व-विद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त है, परन्तु वह आशा करती है कि वह वहीं स्थायी रूप में नियुक्त हो जायेगी।’’
‘‘तो कल किस समय चलोगी?’’ तेजकृष्ण ने पूछ लिया।
‘‘अभी जाकर कल मध्याह्न के उपरान्त किसी भी ‘फ्लाइट’ की टिकट खरीद लाओ।’’
|
|||||










