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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘उसके उपरान्त वह कल आये थे और ‘हनीमून ट्रिप’ का कार्यक्रम बनाते रहे थे। आज पौने ग्यारह बजे आने के लिए कह गए थे। मैं कोर्ट जाने के लिए तैयार थी और अभी आपके आने से कुछ ही मिनट पूर्व मैंने कोर्ट जाने के कपड़े बदले हैं।’’
इस पर यशोदा ने कहा, ‘‘मैं समझती हूं कि कल रात में कुछ हुआ है और प्रोफ़ेसर साहब का विचार विवाह के विषय में बदला है।’’
‘‘माता जी! मुझे कुछ ऐसा समझ में आया है कि मैं एक पुस्तक पुस्तकालय से लाकर पढ़ने वाली थी और उसे कोई अन्य वहां से ‘ईशु’ करा कर ले गया है।’’
‘‘यह ऐसा नहीं!’’ यशोदा ने कहा, ‘‘मैं समझती हूं कि कोई ‘ईशु’ करा कर नहीं ले गया। वह पुस्तकालय से कहीं ‘मिसप्लेस’ कर दी गयी है और इस समय मिल नहीं रही।’’
‘‘तो ढूंढ़ने पर मिल जायेगी?’’
‘‘नहीं भी मिल सकती है। यह भी हो सकता है कि कहीं ऐसे स्थान पर रख दी गयी है जहां से तुम्हारे जन्म काल तक वह मिले ही नहीं।’’
‘‘मैं समझती हूं कि जो कुछ हुआ है और जो कुछ हो रहा है, वह ईश्वरीय विधान ही है। इससे मुझे नतमस्तक हो इस विधान को स्वीकार कर लेना चाहिए।’’
‘‘अब क्या कार्यक्रम है?’’ यशोदा ने पूछ लिया।
‘‘आज तो मैंने, अपना सब नित्य का काम बन्द कर स्वयं को खाली रखा था। अब विचार कर रही हूं कि म्युज़ियम में चली जाऊं और वहां दिल बहला आऊं।’’
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