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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


कमला ने एक बात और कह दी, ‘‘आपमें और मुझमें क्या अन्तर है? दोनों दो टाँग के जानवर हैं। दोनों इन्सान की रूप-राशि रखते हैं। तब एक शेर और दूसरा भेंड़ कैसे हो गया?’’

इस पर रविशंकर ने कह दिया, ‘‘तुम मुसलमान हो और हम हिन्दू हैं।’’

‘‘पैदा होते वक्त तो हम में से किसी के शरीर पर मुसलमान लिखा नहीं था और मैं समझती हूँ कि आप में से भी किसी के शरीर पर हिन्दू नहीं लिखा होगा।’’

‘‘आपके पण्डित ने आपको हिन्दू बनाया था और अब हमारे पण्डित ने हम को हिन्दू बना दिया है।’’

रविशंकर इस प्रकार की युक्ति सुनने के लिए तैयार नहीं था। निरुत्तर हो वह क्रोध के घोड़े पर सवार हो गया परन्तु उमाशंकर की बात स्मरण कर उसने कुछ नरम हो कहा, ‘‘किस पण्डित ने तुम्हें हिन्दू बनाया है?’’

‘‘भाभी प्रज्ञा देवी ने! हम समझते हैं कि भाभी से अधिक योग्य पण्डित दिल्ली में नहीं है।’’

‘‘तो यह तुम्हारी पुरोहित बन गई है?’’

कमला रविशंकर के पुरोहित शब्द का संशोधन करना चाहती थी, परन्तु प्रज्ञा ने कमला के मुख पर हाथ रख उसे चुप करा दिया। इस पर भी कमला हँस पड़ी। बात प्रज्ञा ने अपने हाथ में लेकर कहा, ‘‘पिताजी! यह ठीक है कि मैंने इन सब को दीक्षा दी है, परन्तु हिन्दू बनने की नहीं?’’

‘‘तो क्या बनने की दीक्षा दी है?’’

‘‘मानव बनने की। हम तीनों अब मानव जाति में हैं। वास्तव में हम पहले मानव से कम ही थे। जैसे मैं अपने संस्कारों के कारण अपने को हिन्दु कहती थी, वैसे ये अपने को मुसलमान कहते थे।’’

‘‘संस्कार स्वभाव से चलते हैं। हमने उन संस्कारों को बुद्धि की भट्टी में तपाकर अब बुद्धिगम्य व्यवहार स्वीकार कर लिया है। अब हम ‘अरुणांचल’ में रहने वाले मानव हैं।’’

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