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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मगर हमें बताया तो होता?’’

‘‘आपको मालूम होना चाहिए था। दादा अपने जीजाजी का बदला नाम तो जानते थे।’’ प्रज्ञा पिताजी को समझा रही थी।

पिता के विस्मय प्रकट करने से पूर्व ही उमाशंकर ने कह दिया, ‘‘मगर मुझे यह विदित नहीं था कि आपके नाम अब पब्लिक में इतने विख्यात हो चुके हैं कि डाकिया भी पहला नाम भूल गया है।’’

‘‘कोई नया डाकिया रहा होगा और वह मकान और मकान में रहने वाले का नाम पढ़ चिट्ठी वापस ले गया होगा!’’

‘‘परन्तु इस सब ‘फ्राड’ की आवश्यकता क्या थी?’’ रविशंकर ने पूछा लिया।

‘‘पिताजी! यह फ्राड नहीं है। हमने वास्तव में नाम बदला है।’’

‘‘मगर भेड़ का नाम सिंह रख देने से वह सिंह कैसे हो जाएगा?’’

‘‘परन्तु भेड़ और सिंह में पहचान करने वाले को पता चल सकता है कि यह सिंह ही है, भेड़ नहीं है।’’

कमला फिर कुछ उद्गार प्रकट करने वाली थी कि प्रज्ञा ने उसे मना कर स्वयं ही बात करनी उचित समझी। प्रज्ञा ने कहा, ‘‘देखिए पिताजी! यह प्रज्ञा, दादा उमाशंकर की बहन है। यदि, उमाजी शेर हैं तो बहन सिंहनी क्यों नहीं?’’

‘‘परन्तु तुम दोनों एक ही माँ की सन्तान होने से दोनों सजातीय हो?’’

अब कमला से नहीं रहा गया। उसने कहा, ‘‘पर पिताजी! आप भी तो वही हैं जो भाभी हैं, यद्यपि आपकी माताजी दूसरी हैं।’’

इस हाजिर-जवाबी पर तो रविशंकर का मुख बन्द हो गया और वह मुख देखता रह गया।

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