उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
बोस उनका पड़ोसी ही था। इस कारण रविशंकर उठा और कमरे से निकल गया। उमाशंकर तथा महादेवी मुख देखते रह गए। सरस्वती तो जबसे आई थी, अवाक् बैठी थी।
एक बात का उसे संतोष था कि बहस में बाप पराजित हुआ था। इससे उसे पतोहू की इल्मीयत पर गर्व था। वह और उसका लड़का सब प्रकार से सम्पन्न थे और माँ-पुत्र ने कभी भी बहू के माता-पिता से कुछ पाने की आकांक्षा नहीं की थी। इस कारण वह इससे प्रसन्न थी कि भारत सरकार के गृहविभाग का रिटायर्ड चीफ सैक्रेटरी उसकी बहू से निरुत्तर कर दिया गया है।
उसका ध्यान भंग हुआ जब प्रज्ञा ने माँ को सम्बोधित कर कहा, ‘‘तो माताजी! हम भी चलें?’’
‘‘नहीं बेटी! वह वृद्ध हो गए हैं। कुछ भी बात उनके मन के विपरीत होने लगती है तो वह अपने मन का सन्तुलन खो देते हैं। तुम तो बूढ़ी नहीं हुईं। तुम्हें नाराज नहीं होना चाहिए।’’
‘‘परन्तु माताजी! मैं नाराज नहीं हूँ। इस पर भी पिताजी घर से निकल गये और वह भी मेरी वजह से, इसलिए मुझे भूख नहीं रही।’’
‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूँ। कभी किसी अन्य अवसर पर आऊँगी तो क्षमा माँग उनको राजी कर लूँगी।’’
इतना कह वह उठी और माँ को प्रणाम करने लगी तो माँ ने देखा कि उसकी आँखें भरी हुई हैं। वह लड़की के मुख पर देखने लगी, परन्तु प्रज्ञा ने उमाशंकर की ओर घूमकर पूछ लिया, ‘‘शिव दिखाई नहीं दिया?’’
‘‘उसकी बी.ए. की परीक्षा चल रही है। आज चौथा पर्चा है।’’
‘‘अच्छा! उसे मेरी नमस्ते कहना।’’
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