उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
प्रज्ञा ने आँखें मूँद कुछ विचार किया और कह दिया, ‘‘आप अगर पसन्द करें तो मैं सरस्वती नाम ज्यादा पसन्द करूँगी।’’
‘‘मगर यह तो एक दरिया का नाम है?’’
‘‘नहीं! सरस्वती श्रेष्ठ, सुन्दर, सुलभवाणी, मेरी मतलब है बोली को कहते हैं। नदी का नाम सरस्वती तो पीछे पड़ा है, जब इस बोली को बोलने वाले वहाँ उस दरिया के किनारे जाकर बस गए थे।’’
‘‘कौन-सी बोली है?’’
‘‘जब आप इस ओर चलने लगी हैं तो आप उसे भी सीखने तथा समझने लगेंगी।’’
‘‘बहुत खूब! तुम हो प्रज्ञा, यह तो मुझे याद हो गया है और यासीन का क्या नाम रखा है?’’
‘‘ज्ञानस्वरूप!’’
‘‘हाँ, ज्ञानस्वरूप और यह लड़की है कमला और मैं हूँ...सरस्वती। देखो! मैं अपनी किताब पर लिख लूँगी जिससे भूल न जाऊँ।’’
‘‘हाँ! आपको तो लिखकर ही स्मरण करना पड़ेगा। हम तो आपको अम्मी कहकर बुलाते हैं। हम उसी प्रकार बुलाएँगे। मगर आपको दिमाग में यह नाम याद करने के लिए लिख लेना चाहिए।’’
अल्पाहार के बाद कमला ने उमाशंकर को पत्र लिखा। उसमें नई सूचना दे दी कि उसने अपना नाम बदल लिया है। उसने लिखा, ‘‘अब मैं कमलिनी यानी कमला हूँ। यह भाभी की मेहरबानी का नतीजा है।’’
पत्र लिखकर कमला प्रज्ञा के पास आई और चिट्ठी उसके सामने रख बोली, ‘‘इसे डाक में डलवा दीजिए।’’
‘‘तो लिफाफे में बन्द कर उस पर पता लिखकर लाओ।’’
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