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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘आप पढ़ेंगी नहीं?’’

‘‘मैं इसकी जरूरत नहीं समझती। अब तुम शाही सड़क पर चल पड़ी हो। इसलिए चलना, न चलना तुम्हारा काम है।’’

कमला भी यही चाहती थी। इस कारण उसने पत्र उठाया और अपने कमरे में चली गई तथा लिफाफे में बन्द कर ले आई। उस पर अब उमाशंकर का नाम लिखा था।

प्रज्ञा ने अपने ब्रीफकेस में से टिकट निकाले और लिफाफे पर चिपका कर एक तरफ रख लिया और कहा, ‘‘नौकर को भेज डलवा दूँगी।’’

प्रज्ञा देख रही थी कि उसकी योजना सफल हो रही है। वह समझ रही थी कि पशुओं के परिवार में मानवता के विकास में वह सफल हो रही है। मानवता का उसका अपना एक मापदण्ड था। यह उसने अपने पति को अपने विवाह के दो मास बताया था।

तब वह इतना ही समझ पाई थी कि उसका पति बुद्धिशील व्यक्ति। वह यह जान गई थी कि वह प्रत्येक काम करने से पहले एक क्षण तक आँखें मूँद कर विचार करता था और फिर काम कर देता था।

परन्तु बम्बई में विवाह की सूचना भेजने पर आई डाँट-डपट का भी उसे ज्ञान था। वह समझ थी कि इस परिवार में यदि उसने अपना जीवन सुखमय बनाना है ति उसे इनके स्तर को ऊँचा करना होगा। इसी विषय में वह यत्न करने लगी थी। उसने एक योजना बनाई और इस योजना के अनुसार उसने सर्वप्रथम अपने पति को ऊपर उठाने का यत्न किया।

एक दिन प्रातःकाल उसने पति से कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि आप खुशहाल हैं, खाते-पीते हैं, सुख भोग करते हैं, परन्तु भोगों को देने वाले का कभी शुक्रिया अदा नहीं करते।’’

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