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नास्तिक
नास्तिक
प्रकाशक :
सरल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 7596
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘एक बात आज बताती हूँ। वह इस मन्त्र का एक लफ्ज़ है, ओं महः। इसके मायने हैं वह सबसे बड़ा है। यहाँ तक कि जहाँ-जहाँ तक यह बना हुआ जगत् है, वहाँ-वहाँ वह मौजूद है। वह हर जर्रे में मौजूद है और सब जर्रों से जुड़ा हुआ, उनके ताल्लुक में आता है।
‘‘इससे यह मानना पड़ता है कि वह सब जगह पर हाज़िर है और सबकी सब बातों को देखता तथा समझता है।’’
‘‘जब यह बात हमारे मन में बैठ जाती है तो हमें उसके बनाए कायदे-कानूनों का पता चल जाता है। तब हम उसके कायदे-कानूनों का पालन करते हैं।’’
‘‘इससे अच्छा नतायज पैदा होते हैं। इससे हमें सुख और शान्ति मिलती है। यह कायदे-कानून जान कर उनके मुताबिक अमल करने का फल ही है, जो मिलता है।’’
‘‘वैसे वह न तो किसी से रियायत करता है, न ही किसी की मिन्नत खुशामद पर खुश होता है। उसके उसूलों को पालन करना ही परमात्मा की अबादत है।’’
‘‘तो उसके कायदे-कानून कैसे पता चलते हैं?’’
‘‘उसकी बनाई मखलूक को देखने, समझने और जानने से। वे मैं आपको हर दिन थोड़ा-थोड़ा कर बताऊँगी।’’
एक अन्य दिन उसने कहा, ‘‘एक जबान है, उसे वैदिक भाषा कहते हैं। उसे ही यूरोप और एशिया की जबानों में माँ कहा जाता है। उसको जानना चाहिए।’’
‘‘कैसे जानी जाएगी?’’ यासीन ने पूछा।
‘‘सबसे पहले अपना नाम उस ज़बान में रख लें। फिर मैं उस जबान को बोलूँ तो उसको सुना करिए। इससे जबान आ जाएगी।’’
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