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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


सोना को अपनी ओर ध्यान से देखने पर बिन्दू लजा गई और उसने सोना के हाथ से चावल की टोकनी लेकर, उसके कंकड़ बीनने आरम्भ कर दिए।

‘‘बड़ौज से बात की है?’’ सोना ने पूछा।

जब उसने अपनी आँखे चावलों से उठाए बिना सिर हिलाकर इनकार कर दिया तो सोना ने पूछ लिया, ‘‘तो यह कैसे होगा?’’

बिन्दू ने अब सोना की आँखों में देखते हुए कह दिया, ‘‘उसके आने पर पूछूँगी।’’

‘‘वह आज सायंकाल तक लौटेगा।’’

बिन्दू ने मन में उमंग उठी और टोकनी भूमि पर रख वह नाचने लगी। सोना हँस पड़ी। बिन्दू गाती हुई अपने झोंपड़े की ओर भाग गई।

सोना के हँसने का शब्द सुनकर चौधरी झोंपड़े से बाहर निकल आया। सामने खूँटे से बँधी गाय बाँय-बाँय कर रही थी।

‘‘क्यों हँस क्यों रही हो?’’ चौधरी ने कहा, ‘‘गाय को ले जाओ और लीमा के साँड से मिला लाओ! बाँय-बाँय करने लगी है। तो इसलिए हँस रही थी?’’

‘‘मैं गाय की बात पर नहीं हँसी। एक और गाय बाँय-बाँय करती हुई यहाँ से गई है।’’

‘‘कौन थी?’’

‘‘गदरे की बेटी बिन्दू! वह भी अपने उगते सूरज की प्रतीक्षा कर रही है।’’

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