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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

3

बड़ौज अपने पिता के साथ झोंपड़े को लौट आया। मार्ग में चौधरी ने देखा कि उसके लड़के की आँखों में विद्रोह भर उठा है। उसने लड़के को समझाया।

‘‘मैं समझता हूँ कि सस्ते में छूट गए हैं।’’

‘‘तो क्या हमने भारी पाप किया था?’’

‘‘और नहीं तो क्या?’’

‘‘क्या पापी को दण्ड देना भी पाप है?’’

‘‘अपने कबीले के झगड़ों का फैसला पंचायत करती है और दूसरे कबीले के साथ हुए झगड़ों का निर्णय युद्ध से होता है।’’

‘‘तो अब क्या होगा?’’

‘‘तुम कल लुमडिंग से कितना रुपया लाए हो?’’

‘‘नकद साठ रुपये और बीस रुपये का सामान। पचास दुकानदार से लेने हैं।’’

‘‘तो चालीस गदरे से ऋण लेना पड़ेगा!’’

‘‘नहीं बाबा! एक पैसा नहीं देंगे।’’

‘‘तो क्या करोगे?’’

‘‘कल रास्ते में आते हुए एक पादरी मिला था। वह कहता था कि प्रभु यीशु मसीह सबको आश्रय देता है। हम चाहें तो उसके आश्रम में जा सकते हैं।’’

‘‘वह हमारा धर्म भ्रष्ट कर देगा।’’

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