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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘क्या यह धर्म था जो साधु कर रहा था? पंचायत ने भी न्याय नहीं किया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि मैं आज ही बिन्दू से विवाह करूँगा।’’

‘‘कैसे करोगे?’’

‘‘उसको लेकर पादरी के पास चला जाऊँगा।’’

चौधरी टुकर-टुकर मुख देखता रह गया। बाप-बेटा झोंपड़े में पहुँचे तो बिन्दू सोना से बातें कर रही थी। दोनों झोंपड़े के बाहर ही बैठी थीं।

बिन्दू ने बड़ौज को देखा तो सोना के समीप से उठ उसको एक ओर ले जाकर बातें करने लगी। बातें करते-करते दोनों झोंपड़े के साथ लगी बाड़ से निकल गए। चौधरी अपनी पत्नी से पूछने लगा, ‘‘यह क्या कहने के लिए आई थी?’’

‘‘यह तो पंचायत का निर्णय जानने के लिए आई थी।’’

‘‘मुझे एक सौ रुपए का दण्ड मिला है।’’

‘‘और बड़ौज को?’’

‘‘सारा दोष मैंने अपने सिर ले लिया था।’’

‘‘तो वह बच गया है?’’

‘‘हाँ, परन्तु लड़का कहता है कि साधु पापी था, इसलिए दण्ड नहीं देना चाहिए। पापी को मारना पाप नहीं हो सकता।’’

‘‘और आप क्या कहते हैं?’’

‘‘अपराध यह नहीं हुआ कि साधु मार दिया गया है, परन्तु यह कि मैंने उस अपराध को पंचायत को नहीं बताया। पंचायत के निर्णय के बिना उससे झगड़ा किया है।’’

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