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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


इसके पश्चात् उनको उठाकर वह इस बड़े कमरे के बगल वाले कमरे में ले गया। वहाँ रखी एक किताब पर दोनों का नाम-धाम और माता-पिता का नाम लिखकर दोनों के अँगूठे लगवा लिये।

जब यह हो चुका तो पादरी ने अपने भी हस्ताक्षर कर दिए, और उनसे पूछने लगा, ‘‘अब कहाँ जाओगे?’’

‘‘हमें पता नहीं।’’

‘‘यहाँ काम करोगे?’’

‘‘करेंगे।’’

‘‘तो तुम यहाँ नौकरी कर लो। तुमको रहने के लिए मकान मिलेगा, पहनने के लिए कपड़े मिलेंगे, और वेतन मिलेगा, जिससे दोनों मज़े में रह सकोगे।’’

‘‘हमें स्वीकार है।’’ बड़ौज ने कहा।

‘‘ठीक है। चलो मेरे साथ।’’

वह उनको एक दूसरे मकान में ले गया। यह मकान समीप ही गिरजाघर के बगल में था। वहाँ एक अन्य पादरी था, जो वैसे ही वस्त्र पहने हुए था। पादरी ने उनको उसके हवाले कर अंग्रेज़ी में कुछ कहकर समझा दिया।

इस नए पादरी ने उनसे कहा, ‘‘मैं इस बस्ती का ‘वार्डन’ हूँ। अभी तुम मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें अपनी पत्नी के पास ले चलता हूँ। वह तुम दोनों को पहनने के कपड़े देगी और रहने के लिए स्थान बता देगी। तुम्हारे खाने की भी व्यवस्था करेगी। कल से यह युवक तो काम पर जाएगा और तुम स्कूल में पढ़ोगी।’’

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