उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
इस प्रकार इस बस्ती में आने के एक घण्टे के भीतर ही वे पति-पत्नी बनकर सुन्दर वस्त्रों से सज्जित और भोजन से सन्तुष्ट होकर एक कमरे में बैठे विस्मय से एक-दुसरे का मुख देख रहे थे।
‘‘क्या देख रहे हो जी!’’
‘‘अपनी पत्नी का सुन्दर मुख।’’
‘‘मुख तो वही है, जो तीन वर्ष से लगातार देख रहे हो। पर पहले तो ऐसे कभी नहीं देखा?’’
‘‘आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो।’’
‘‘घर की मालकिन भी यही कह रही थी। उसने कहा था कि अब तक यह कमल कीचड़ में पड़ा था, अब उद्यान में आ गया है।’’
‘‘उद्यान क्या होता है?’’
‘‘मैंने उससे पूछा तो वह मुझे घर के पिछवाड़े में ले गई और वहाँ पर उसने मुझे एक खुला स्थान दिखाया। वहाँ भाँति-भाँति के फूल खिले थे। बहुत सुन्दर स्थान था वह। उसने कहा जैसे ये फूल लगे हैं वैसे ही तुम इस बस्ती में हो। उसका कहना था कि इस पूर्ण बस्ती में मेरी जैसी सुन्दर लड़की नहीं है।’’
‘‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इसलिए कि सबसे सुन्दर लड़की मेरी पत्नी है।’’
आवेग में लपककर बिन्दू बड़ौज की गोद में जाकर बैठ गई।
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