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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘इसलिए मैं कहता हूँ कि बिन्दू और बड़ौज ने भगवान की इच्छा का विरोध नहीं किया। भगवान की इच्छा का विरोध साधु और पंचायत ने किया है।

‘‘सोना की बात पृथक् है। उसका विवाह भगवान की इच्छा और पंचायत की स्वीकृति से हुआ था। इस बात को बीस वर्ष हो चुके हैं। विवाह के बाद पत्नी पति की सम्पत्ति होती है पंचायत उसको वापस नहीं ले सकती। चौधरी गया तो अपनी पत्नी को साथ लेकर गया है। कोई बुरी बात नहीं हुई है। जो होना चाहिए था, वह ही हुआ है।’’

‘‘परन्तु चौधरी गया ही क्यों?’’

‘‘इसलिए कि पंचायत ने उस पर अन्याय किया था। चौधरी ने साधु को मारा नहीं था। साधु ने उस पर छुरे से वार किया था। और फिर पाँव फिसलने पर वह स्वयं छुरे पर गिर गया था। धनिक यहाँ का चौधरी था। उसने अपराधी के शव को ठिकाने लगा दिया था तो कोई बुरी बात नहीं की थी। उसको सौ रुपये दण्ड देना अन्याय था, और यह दण्ड था भी बहुत अधिक। उस दण्ड को सबने अन्याय मानते हुए भी भोज के लोभ में उसका विरोध नहीं किया।’’

अब उसी पंच ने, जिसने चीतू की सम्मति सुनने की इच्छा प्रकट की थी, कहने लगा, ‘‘चीतू ठीक कहता है। साथ ही मैं कहता हूँ कि यदि धनिक और बड़ौज को अपराधी मान भी लें, तो उनकी अनुपस्थिति में उनकी बात सुने बिना निर्णय देने का लाभ ही क्या है, हम उनको दण्ड तो दे नहीं सकते।’’

यह अन्तिम युक्ति मान ली गई और निर्णय हो गया कि यदि ये लोग वापस आ जाएँ, तो इनके लिए फिर पंचायत बैठाई जाए।’’

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