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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


युक्तिपूर्वक बात करने से लोग चीतू से प्रभावित हुए और उसे कबीले का चौधरी चुन लिया गया।

चीतू की इच्छा थी वह लुग्गी को कबीले में वापस ला सके और साथ ही सोना और बिन्दू को भी। उसका विचार था कि औरतें वापस आएँगी तो उनके घरवाले स्वयं ही आ जाएँगे। अपनी इस योजना को पूर्ण करने के लिए उसने एक ओर तो कबीले के पंचों को समझाना आरम्भ कर दिया और दूसरी ओर बिन्दू और सोना का पता करना आरम्भ कर दिया। अपनी बहिन लुग्गी से तो वह स्वयं लुमडिंग में जाकर मिलना चाहता था।

पंचों को समझाने में चीतू को कठिनाई उत्पन्न हो रही थी। यह कठिनाई पुरोहित के निर्वाचन के समय उपस्थित हुई। साधु का एक चाचा का लड़का था। वह पुरोहित बनना अपना अधिकार मानता था और पंचों से मिल-मिलकर वह अपने पुरोहित बनने के लिए यत्न कर रहा था।

पूर्णिमा की रात को इस विषय पर निर्णय होने वाला था। पंचायत ही इसका निर्णय करने वाली थी। जिस मन्दिर में पंचायत बैठती थी वह एक झोंपड़े में था; और उस झोंपड़े का रहस्य साधु के भाई सन्तू को, जो पुरोहित बनने के लिए यत्न कर रहा था, विदित था। झोंपड़े की भुमि के नीचे एक तहखाना बना था। उसका रास्ता साधु के झोंपड़े को जाता था। उस झोंपड़े पर सन्तू ने अधिकार कर लिया था।

सन्तू जानता था कि मन्दिर के देवता से जो कुछ कहलाना होता था, साधु सन्तू को उस तहखाने में जा, मूर्ति के नीचे मुख कर, कहने को बता देता था। अनेक विवाह इस प्रकार करा दिए गए थे और अनेक होते-होते रोक दिए गए थे। चीतू को सदा इसी बात का सन्देह रहता था। उसके अपने विवाह के विषय में भी इसी प्रकार की बात हुई थी। पहले तो देवता ने विवाह के विरुद्ध आदेश दे दिया था, फिर बाद में बीस रुपये देने पर देवता ने विवाह के पक्ष में आदेश दे दिया था।

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