उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
इस रुपए से उसने ग्यारह हज़ार पगड़ी देकर कनॉट-प्लेस में एक दुकान भाड़े पर ले ली और बीस हज़ार में गुरुद्वारा रोड पर एक बँगला मोल ले लिया। स्वराज्य मिलने से पूर्व कपड़े की दुकान सजा ली और गुरुद्वारा रोड वाले बँगले में रहने लग गया।
कनॉट-प्लेस वाली दुकान पर उसका परिचय राजपुरोहित मधुसूदन से हुआ। मधुसूदन ने कश्मीरीलाल के पुत्र सुदर्शन को देखा तो अपने संरक्षण में पली एक लड़की सुमति से उसके विवाह का प्रस्ताव कर बैठा। सुदर्शनलाल की माँ तथा उसकी बहन निष्ठा लड़की को देखने गईं और निष्ठा द्वारा लड़की के सौंदर्य वर्णन ने सुदर्शन को लड़की देखने के लिए उद्यत कर दिया।
मधुसूदन की पत्नी रामी और उसकी प्रतिपाल्या सुमति कश्मीरीलाल के घर पर निमंत्रण पर आईं। जहाँ पंडितजी की पत्नी ने सुदर्शनलाल को देखा तथा पसन्द किया, वहाँ सुदर्शनलाल ने भी सुमति को देखा। दोनों पक्ष सम्बन्धों के लिए तैयार हुए तो सगाई हो गई और विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई।
निमंत्रण-पत्र बाँटे गए और श्रीपति चन्द्रावरकर तथा उसकी बहन नलिनी को भी भेजे गए। सुदर्शनलाल स्वयं ही उनको देने गया। श्रीपति तो निमंत्रण-पत्र पढ़कर खिलखिलाकर हँस पड़ा और नलिनी उसे देख कर डबडबाई आँखों से आधा ही पढ़ सकी। आँखों में पानी आ जाने के कारण निमंत्रण-पत्र के अक्षर दिखाई देने बन्द हो गए थे।
नलिनी के अश्रुओं का अर्थ तो सुदर्शनलाल समझ गया था। उसको ये उसकी निराशा के अश्रु प्रतीत हुए थे, परन्तु वह श्रीपति के हँसने का अर्थ नहीं समझा। उसने नलिनी के अश्रुओं को अनदेखा प्रकट करने के लिए श्रीपति से पूछा, ‘‘क्यों, इसमें हँसने की क्या बात है?’’
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