उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘पता नहीं क्यों? जब वे लाला मेरी पीठ पर हाथ फेरकर पूछने लगे, ‘भगवानदास! पर्चे कैसे किए हैं?’ तो मुझे रोमांच हो आया और मैंने अपने पिताजी से कहा, ‘मैं घूमने जा रहा हूँ।’ उन लालाजी को नमस्ते कर, बैठक से निकल आया।’’
‘‘वाह भई! खूब! श्वसुर ने पीठ पर हाथ फेरा और तुम्हारे रोंगटे खड़े हो गए। वह तुम्हारा श्वसुर था या बीवी थी?’’
‘‘तो क्या बीवी का हाथ लगने से रोंगटे खड़े होते हैं?’’
‘‘भगवानदास! इसका तजुरबा तो है नहीं। हाँ, बीवी का ख्याल करने से रोंगटे जरूर खड़े हो जाते हैं। तुमने लालाजी की लड़की देखी है?’’
‘‘नहीं! वे अनारकली बाज़ार में घड़ियों की दुकान करते हैं। वे वहीं रहते हैं और सुना है, बहुत धनी आदमी हैं।’’
‘‘कम्मो के बाप हैं तो बाबू, चालीस रुपया महीना पाते हैं। बहुत मुश्किल से गुज़र होती है। सादिक मियाँ मेरे बाप से मिलने आए थे और कह रहे थे कि वे दहेज वगैरा कुछ नहीं दे सकेंगे।’’
‘‘फिर! शादी होगी या नहीं?’’
‘‘होगी क्यों नहीं? हमारे घर में तो खाने-पीने को बहुत है। पिछले काम में बाप को तीन हज़ार रुपए की बचत हुई थी। इस काम में तो और ज्यादा होने वाली है।’’
‘‘कितने समय में काम खत्म किया था?’’
‘‘छः महीने में।’’
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