उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
नूरुद्दीन अपने मित्र की प्रशंसा सुन प्रसन्न हुआ करता था। उसकी अपनी प्रशंसा तो कोई करता नहीं था। इससे उसको मित्र की प्रशंसा अपनी ही प्रशंसा प्रतीत होती थी।
वे घर से कुछ दूर पहुँच चुके थे। नूरुद्दीन चलता-चलता खड़ा हो गया और लौट जाने का विचार करने लगा। भगवानदास ने उसकी बाँह-में-बाँह डाल, उसको रंगमहल चौक की ओर खींचते हुए कहा, ‘‘बात यह है कि एक लाला मेरी सगाई की बात करने आए हुए हैं। इससे मैं वहाँ से चला आया हूँ। मुझको शर्म लगने लगी थी।’’
नूरुद्दीन खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘तुम भी लड़कियों की तरह शर्म करते हो?’’ उसने भगवानदास के मुख पर देखते हुए पूछ लिया, ‘अरे भगवान! शर्म तो तुम्हारी होने वाली बीवी को करनी चाहिए। तुमको किस बात की शर्म लगती है?’’
भगवानदास ने उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। दोनों परेड ग्राउण्ड की ओर चल पड़े थे। नूरुद्दीन ने अपनी बात बताते हुए कहा–‘‘मेरा विवाह सादिक की लड़की कम्मो से होगा। सगाई से पहले तो वह लाभचन्द की दुकान पर दूध-दही लेने आया करती थी और मैं उसको देखा करता था। कई बार उससे बातें भी की हैं। उसके वालिद की बाबत और उसके कुत्ते ‘बेली’ की बाबत। कभी बेली उसके साथ हलवाई की दुकान पर नहीं आता तो मैं पूछ लेता, ‘‘आज बेली कहाँ है?’’ और वह बताया करती–‘घर पर बँधा हुआ है।’
‘‘मगर एक दिन सगाई के बाद भी मेरी नज़र उस पर पड़ गई। बस, मुझको देखते ही वह घर को भागी। हाथ में एक छन्ने में दही ले जा रही थी। वह भी भागते हुए गिर पड़ी।’’
‘‘यह कब की बात है?’’ भगवानदास ने पूछ लिया।
‘‘तीन-चार दिन हुए हैं। उसके बाद कल उसका बाप दही लेने आया था। वह शरम खा गई मालूम होती है।’’
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