उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
नूरुद्दीन साढ़े पाँच बजे काम से लौटता और घर जा, माँ से दो रोटी ले और खाकर सीधा भगवानदास के घर की बैठक में जा पहुँचता। कभी भगवानदास घर पर नहीं होता तो वह बैठक में बैठा प्रतीक्षा करता रहता। लोकनाथ के घर की बैठक, मुहल्ले का पंचायत-घर बनी हुई थी। मुहल्ले का कोई-न-कोई झगड़ा, किसी-न-किसी की चर्चा, किसी के विवाह आदि का प्रबन्ध अथवा देश-विदेश की बातचीत भी वहाँ होती रहती थी। लोकनाथ भी दफ्तर से लौट, सायंकाल का अल्पाहार कर बैठक में आ जाता था और इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। लोकनाथ हुक्का गुड़गुड़ाता रहता और बातें करता रहता।
परीक्षा-फल अभी नहीं निकला था, तभी एक दिन नूरुद्दीन भगवानदास के घर पहुँचा तो वह घर से निकल रहा था।
‘‘किधर जा रहे हो, भगवान! आओ, परेड ग्राउण्ड तक टहल आएँ?’’
‘‘क्यों, आज क्या है?’’
‘‘पिताजी से कोई बात करने आए हैं। मैंने वहाँ बैठना ठीक नहीं समझा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘अरे बुद्धू! इसलिए कि वे मेरी बातें कर रहे हैं।’’
‘‘तो फिर क्या हुआ? तुमको गाली देते हैं क्या?’’
‘‘नहीं; मेरी तारीफ़ (प्रशंसा) कर रहे हैं।’’
‘‘तब तो सुनने में मज़ा आएगा।’’
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