उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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परीक्षा समाप्त हुई और अगले ही दिन नूरुद्दीन अपने बाप के साथ काम पर जाने लगा। किन्तु वह नित्य सायंकाल भगवानदास से मिलता अवश्य था। दोनों बचपन के दोस्त थे। एक ही मुहल्ले के रहने वाले थे। दोनों के मकान केवल सड़क के अन्तर पर थे। एक का मकान सड़क के एक ओर और दूसरे का सड़क के दूसरी ओर था। ये तब से मित्र थे, जब वे सड़क के किनारे बैठ, कंकड़ों से खेला करते थे। तब खुदाबख्श मिस्त्री का काम करता था। एक समझदार कारीगर होने के नाते उसकी माँग रहती थी। मुहल्ले में जो कोई भी मकान बनता खुदाबख्श का हाथ लगे बिना, उसको ठीक नहीं माना जाता था। उन दिनों अधिकांश मिस्त्री दो रुपये रोज़ लेते थे, परन्तु खुदाबख्श ढाई रुपए लेता था।
भगवानदास और नूरुद्दीन इकट्ठे मुहल्ले के कुछ ही अन्तर पर मिशन हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए। जब कुछ बड़े हुए तो मुहल्ले के लड़कों ने फुटबाल की एक टीम बनाई और नूरुद्दीन उसमें कप्तान बन गया। भगवानदास उस टीम का एक सदस्य था। तब भी नूरुद्दीन की भगवानदास से दिली दोस्ती रही। स्कूल में भरती हुए तो नूरुद्दीन भगवान के घर आकर, उनके मकान की बैठक में पढ़ा करता था। नूरुद्दीन का पढ़ाई में सबसे कमजोर विषय गणित था। भगवानदास उसको समझाता रहता था। ज्योमेट्री तो वह समझ भी जाता। परन्तु अरिथमैटिक और ऐलजैबरा तो उसके दिमाग में आते ही नहीं थे।
भगवानदास की बहन का विवाह हुआ तो सबसे अधिक काम करने वाला नूरुद्दीन ही था। जो भी काम उसको बताया गया, वही उसने किया। तीन रात तो वह अपने घर ही नहीं गया। इस विवाह के समय वे दसवीं श्रेणी में पढ़ते थे।
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