उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘शरणदास बड़े आदमी हैं। उनमें सम्बन्ध बनेगा फिर आना-जाना बना रहा तो कुछ लाभ ही होगा। अभी तो हम लोग भगवान की ससुराल से खायेंगे। विवाह के बाद तो ये हमको पूछेंगे भी नहीं।’’
लोकनाथ लाट साहब (गवर्नर) के दफ्तर में क्लर्क था। डेढ़ सौ रुपया वेतन पाता था और घर-गृहस्थी सुभीते से चला रहा था। शरणदास अनारकली बाज़ार में घड़ियों की दुकान करता था। बिरादरी में धनीमानी व्यक्ति समझा जाता था। अपनी पहली लड़की के विवाह पर उसने पचास तोले सोना दिया था और उन दिनों यह एक बहुत बड़ा दहेज समझा जाता था। शरणदास की हैसियत देख, लोकनाथ के मुख में पानी भर आया था। इससे उसने कह दिया, ‘‘अच्छा, दसवीं जमात का परीक्षाफल निकल लेने दो, उसके बाद बात करेंगे।’’
नूरुद्दीन की बात सुनकर भगवानदास भी अपनी सगाई की बात पर विचार करने लगा था। उसने अपनी होने वाली पत्नी का नाम भी नहीं सुना था। उसने शरणदास की दुकान देखी थी। एक दिन वह अपने पिता के साथ एक जेबघड़ी खरीदने वहाँ गया था। घड़ी आठ रुपए की आई थी। उसके बाद ही उसकी माँ शरणदास की पत्नी के सन्देश पाने लगी थी। शरणदास ने लड़के को उसी दिन देखा था और पसन्द कर लिया था।
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