लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


‘‘बहुत गन्दी किताबें पढ़ाते हैं स्कूलों में?’’

‘‘अब्बाजान! मैं कम्मो से शादी करूँगा।’’

‘‘कैसी लगती है?’’

‘‘दुबली, पतली, लम्बी, गोरी और–।’’ आगे वह अपने बाप को बता नहीं सका।

यह बुधवार की बात थी। आज शुक्रवार था। आज वह इम्तिहान देकर घर लौटते हुए भगवानदास को बता रहा था, ‘‘और, दोस्त! मेरी एक माशूका है। मैं उससे मोहब्बत करने लगा हूँ। मेरे काम पर जाने के एक महीने के अन्दर मेरी उससे शादी होगी। कल माँ, लड़की की माँ से मिल आई हैं और बात पक्की कर आई हैं। अब बताओ, तसल्ली की बात है या नहीं?’’

‘‘ठीक है।’’ भगवानदास ने सामने मार्ग पर चलते हुए कहा।

भगवानदास अपनी श्रेणी में सबसे योग्य विद्यार्थी था। उसके मास्टर आशा कर रहे थे कि वह मैट्रिक की परीक्षा में बहुत अच्छे अंक लेकर पास होगा। कदाचित् वह छात्रवृत्ति भी पा जाएगा। उसके घर पर भी उसके विवाह की चर्चा हो रही थी। उसकी माँ उसके पिता से कह रही थीं, ‘लाला शरणदास की पत्नी कई बार आ चुकी है।’’

भगवानदास का पिता लोकनाथ कहा करता था–‘‘लड़के को एम.ए.पास करना है। पहले शादी कर दूँगा तो पढ़ाई न हो सकेगी।’’

‘‘सगाई तो हो सकती है।’’

‘‘क्या लाभ होगा?’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book