उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘हाँ! उसका नाम है ‘प्रिज़नर आफ़ जैंडा’। जैंडा एक देश का नाम था। वहाँ का राजा ख़ूबसूरत, शराबी और काहिल (प्रमादी) था। एक अंग्रेज़ मुसाफिर वहाँ पहुँच गया। किस्मत से उस मुसाफिर की शक्लसूरत राजा से बिल्कुल मिलती थी। राजा के वज़ीर, जो राजा की काहिली से तंग आ चुके थे, उस मुसाफिर को अपना राजा बना बैठे और असली राजा को कैद कर लिया। राजा की सगाई नगर के एक धनी आदमी की लड़की से हो चुकी थी। लड़की राजा से मिलने आती रहती थी। उस मुसाफिर के राज्य-कार्य सँभालने पर भी वह लड़की मिलने आई। उसने भी इस अदला-बदली को नहीं पहचाना। वह हैरान तो हुई। राजा की आदतों में बहुत फर्क पड़ गया था। जहाँ वह पहले शराब में मदमस्त पड़ा रहता था, वहाँ अब वह कारोबार में लगा हुआ था।
‘‘वह मुसाफिर राजकाज को पसन्द नहीं करता था। इससे वह वहाँ से भागकर जाना चाहता था, मगर वह राजा की बनने वाली रानी से मुहब्बत करने लगा था, इसीलिए वह वहाँ टिका था। असली राजा कैद में बन्द था। आखिर, उसने लड़की को अपना राज़ बता दिया। लड़की भी उससे मुहब्बत करने लगी थी। मगर उसने कहा, ‘‘मेरा बाप इस अदला-बदली को पसन्द नहीं करेगा। वह तो मेरे रानी बनने के ख्वाब ले रहा है। अगर तुम मुझसे शादी करना चाहते तो यहाँ के राजा बने रहो और उसको कैद में रहने दो।’’
‘‘मुसाफिर को यह बात पसन्द न आई। एक तो वह इसको धोखा समझता था, दूसरे, उसको राजगद्दी से ज्यादा अपनी आज़ादी पसन्द थी। आखिर एक दिन वह लड़की को लेकर ‘इलोप’ कर गया। वह इंग्लैंड में जा पहुँचा और वहाँ उसने लड़की से शादी कर ली।’’
‘‘यह इलोप क्या होता है?’’
‘‘यही, जो मैं करने की बात कर रहा हूँ।’’
|