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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘पर अब्बा जान! मैं शादी करूँगा।’’

खुदाबख्श ने लड़के के मुख की ओर देखा और उस पर लज्जा की लाली देख कह दिया, ‘‘अपनी माँ से कहो।’’

‘‘माँ ने कह दिया। वह मान गई है।’’

‘‘क्या मान गई है?’’

खुदाबख्श को इसमें न मानने की कोई बात समझ में आई ही नहीं थी। लड़का जवान हो रहा था। भला शादी न करने की बात तो माँ कर सकती ही नहीं थी। नूरुद्दीन ने बाप को समझा दिया, ‘‘वह सादिक है न? वही जो रेल के एग्ज़ामिनर के दफ्तर में काम करता है। उसकी लड़की कम्मो से शादी करूँगा। माँ मानती नहीं थी। मैंने उसे राज़ी कर लिया है।’’

खुदाबख्श कितनी ही देर तक लड़के का मुख देखता रहा। फिर उसने पूछा, ‘‘पर सादिक मानेगा क्या?’’

‘‘नहीं मानेगा तो उसकी लड़की को भगाकर ले जाऊँगा।’’

‘‘बहुत बदमाश हो गए हो!’’

‘‘नहीं अब्बाजान! हमारी एक किताब में एक राजा अपनी माशूका को भगा ले जाने की बात लिखी है।’’

‘‘वह किताब स्कूल में पढ़ाई जाती है?’’

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