उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘यह ठीक नहीं, अम्मी! पहले ही गुज़र नहीं होती। अब कर्ज़ा लेगा तो उतारेगा कैसे?’’
‘‘पर बेटा! हम इसमें क्या कर सकते हैं?’’
‘‘उनको मना कर देना चाहिए।’’
‘‘कौन करे! हम कुछ कहने जाएँगे तो वह इसमें बेइज्ज़ती मानेगा।’’
नूरुद्दीन अपने पिता की तरह कार्य-कुशल था। उसने इसके लिए एक योजना सोचा। वह उठकर बाप के पलंग के नीचे रखे संदूक में से रुपए निकालने चल पड़ा। माँ खाना बना रही थी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करने जा रहा है। वह पहले भी सन्दूक में रुपए रखने और निकालने जाया करता था। खुदाबख्श किसी काम से बाज़ार गया हुआ था। नूरुद्दीन ने पाँच सौ रुपयों के नोटों का बंडल निकाल जेब में रखा और घर से निकल गया। वह सीधा अपने श्वसुर के मकान पर पहुँचा और दरवाज़ा खटखटाने लगा।
सादिक के मकान की ऊपर की मंजिल से कम्मो ने झाँककर देखा। नीचे गली में अँधेरा था। रात के नौ बज रहे थे। कम्मो के मुख पर घर के दीपक का प्रकाश पड़ रहा था। नूरुद्दीन ने पहचान लिया। मगर कम्मो ने नीचे अँधेरे में खड़े नूरुद्दीन को नहीं पहचाना। उसने पूछ लिया, ‘‘कौन है?’’
‘‘अपने अब्बा को नीचे भेजो!’’
कम्मो ने अभी भी नहीं पहचाना। उसने खिड़की से पीछे हटकर अपने वालिद को कह दिया, ‘‘नीचे कोई है, आपको बुला रहा है।’’
सादिक नीचे उतर दरवाज़ा खोल, पूछने लगा, ‘‘क्यों भाई! कौन है?’’
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