उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘पिताजी कहते हैं कि उनके बाबा कानूनगो थे। उनके पिता म्यूनिसिपल कमेटी में तीस रुपए महीना के मुहर्रिर थे और अब वे लाट साहब के दफ्तर में क्लर्क हैं। हमारे खून में कारोबार करने का स्वभाव ही नहीं और अगर मुझको कोई दुकान वगैरा करवाई गई तो मैं उसको चला नहीं सकूँगा।’’
नूरुद्दीन खिलखिलाकर हँस पड़ा। फिर कहने लगा, ‘‘भगवान! तुम हिन्दू लोग खूब सोचते हो। देखो! मेरे बाबा मज़दूर का काम करते थे। छः आना रोज मज़दूरी पाते थे। मेरे अब्बा राजगीरी करने लगे और डेढ़ रुपया रोज़ से काम आरम्भ कर, ढाई रुपए तक लेते रहे थे। अब डेढ़-दो वर्ष से वह ठेकेदारी करने लगे हैं। अब मैंने अपनी ठेकेदारी का नाम ‘प्रीमियर कन्स्ट्रक्शन कम्पनी’ रख लिया है। इस काम में तरक्की करने को बहुत स्थान है।’’
‘‘जो काम बाप-दादाओं ने नहीं किया, वह मैं कैसे कर सकूँगा! इसी विषय में बातचीत होती रही है।’’
‘‘पर, भगवान! यह भी तुम्हारे माता-पिता ने कभी सोचा है अथवा नहीं कि उनकी दादी की दादी चूल्हा सेंकती हुई मरी और उसके बाद सब घर की औरतें रोटी और सलूना ही बनाती रही हैं। अब तुम लोग भला रोटी क्यों नहीं बनाते? तुम लोग कलम क्यों घिसने लगे हो?’’
‘‘यह बात नहीं, दोस्त! औरतें औरतों का काम करती हैं और मर्द मर्दों का।’’
‘‘पर मेरी बीवी तो कहती है कि वह चूल्हा नहीं फूँकेगी।’’
‘‘तो क्या करेगी?’’
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