उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘रोटी बनाने के लिए नौकरानी रखेगी। वह उर्दू पढ़ाती है। नावल पढ़ने का उसको बहुत शौक है। अभी तो नई विवाह कर आई है। माँ उससे काम नहीं लेती, मगर वह, माँ के बर्तन साफ करने से हुए गन्दे हाथ देख, कह रही थी कि चौका-वासन के लिए एक खादिमा रख लेनी चाहिए।’’
‘‘परन्तु, वह काम तो घर का ही करेगी?’’
‘‘नहीं, भगवान! वह घर में मलिका बन, हुकूमत करेगी। अभी से वह मेरे छोटे भाई रमज़ान की अंग्रेजी की किताब पढ़ने लगी है और कहती है कि दो साल में हमारे ठेकेदारी का हिसाब-किताब रखने लगेगी।’’
‘‘और रोटी इत्यादि?’’
‘‘अभी तो अम्मी बनाती हैं, फिर कोई नौकरानी रखी जाएगी।’’
भगवानदास विचार करता था कि एक बाबू की लड़की खुदाबख्श के घर में बाबूगिरी करने आई है। इस विचार के आते ही अब हँसने की बारी भगवानदास की थी। उसने कह दिया, ‘‘नूरे! तुम्हारी बावी तो उस बात को ही सिद्ध कर रही है, जो मेरे पिताजी कहते हैं। वह क्लर्क की लड़की, क्लर्क का काम करेगी। मिस्त्री के घर में दफ्तर खोल लेगी।’’
नूरुद्दीन की समझ में बात आई तो वह भी हँसने लगा।
अगले दिन परीक्षाफल निकला। भगवानदास प्रान्त में तीसरे नम्बर पर रहा और वजीफा पा गया। घर में बधाइयाँ देने वाले आने लगे। बधाई देने के लिए आने वालों को मिठाई बँटने लगी। भगवानदास का श्वसुर शरणदास भी आया और बधाई के साथ एक थाल लड्डुओं का तथा ग्यारह रुपए दे गया। इस प्रकार भगवानदास के वजीफा पा जाने की प्रसन्नता में उसकी किसी कारोबार में लगने का विचार विलीन हो गया और समय पर वह गवर्नमेन्ट कॉलेज में भरती हो गया। उसने डाक्टर बनने के विचार से इंटर में साइंस ले ली।
|