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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


नूरुद्दीन और करीमा का लोकनाथ के घर आना-जाना बे-मतलब नहीं था। नूरुद्दीन के कहने पर और खुदाबख्श ने अपने लोकनाथ से पुराने सम्बन्धों के कारण लोकनाथ का ‘प्रीमियर कन्स्ट्रक्शन कम्पनी’ में दो आने का हिस्सा रख लिया। इससे लोकनाथ का हाथ और भी खुल गया और साथ ही खुदाबख्श को सरकारी काम मिलने लगा। डेढ़ लाख की इमारत का एक काम इस कम्पनी को मिला तो नूरुद्दीन ने लोकनाथ के सम्मुख एक प्रस्ताव कर दिया।

‘‘बाबूजी!’’ उसने कहा, ‘‘आपका मकान भी अब नया बन जाना चाहिए।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘करीमा कहती है कि भगवान भापा डॉक्टर बनकर आयेगा तो रोगी देखने के लिए जगह होनी चाहिए। आपके घर में तो जगह है नहीं।’’

‘‘ओह! तो इस बात की चिन्ता करीमा को होने लगी है?’’

‘‘हाँ! फिर भाभी आएगी तो उसके सोने-बैठने को अलहदा जगह चाहिए। डॉक्टर की बीवी और धनी सेठों की लड़की को अगर अलहदा जगह न मिली तो माँजी से लड़ाई हो पड़ेगी।’’

‘‘भाई, भगवानदास की माँ ने तो कभी इस बात पर अपनी सास से झगड़ा किया नहीं था।’’

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