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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


नूरुद्दीन इस बात को समझ नहीं सका परन्तु उसने इसकी और अधिक व्याख्या जानने का यत्न भी नहीं किया। वह अपनी बात जानता था। विवाह के पश्चात् पहली ही रात उसकी बीवी ने उसकी माँ से कह दिया था कि वह रात को अलहदा कमरे में सोयेगी। घर में नीचे की मंजिल पर घर का कूड़ा-करकट पड़ा रहता था। शादी के अवसर पर खाना-पीना करने के लिए नीचे के कमरे खाली कराए गए थे। रात के वक्त उसने नीचे की मंजिल पर एक कमरे पर अधिकार कर लिया था और नूरुद्दीन को, अपने सास-श्वसुर के देखते-देखते उस कमरे में ले जाकर भीतर से कुंडा चढ़ा लिया।

यह दिक्कत तो एक दिन ही रही। अगले दिन खुदाबख्श ने ऊपर की मंजिल पर अपने सोने का कमरा अपने लड़के और बहू के हवाले कर दिया और खुद नीचे के कमरे में जाकर रहना शुरू कर दिया। फिर जब नया मकान बना तो उसने अपने वालिद के एक दोस्त ड्राफ्ट्समैन से घर का नक्शा बनवाया था। उसमें अपने सोने का कमरा, अपनी सहेलियों से मिल-बैठने का कमरा, अपने देवर के पढ़ने का कमरा सब पृथक्-पृथक् थे। घर में रसोई-घर और गोदाम का भी प्रबन्ध था।

जब खुदाबख्श का घर बन गया तो उसकी सास को अनुभव हुआ कि करीमा बहुत ही समझदार लड़की है और उसने घर का सब प्रबन्ध उसके हाथ में दे दिया।

करीमा ने अपने घर के बाहर अपने श्वसुर और पति के कारोबार में भी हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। उसने मेहनत कर अपने वालिद सादिक से हिसाब-किताब रखने का ढंग सीखा और फिर सब काम अपने हाथ में ले लिया। नूरुद्दीन तो केवल काम के स्थान पर लिखा-पढ़ी करता था, दफ्तर का काम करीमा करती थी। जो काम खुदाबख्श ने लकीरें खींच-खींचकर आरम्भ किया था, वह अब नियमित रूप से कैश-बुक, लैजर, स्टॉक-बुक में लिखा जाता और हानि-लाभ के चिट्ठे बनने लगे थे।

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