उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो क्या तुम अपने हिसाब में इसे दर्ज करोगे?’’
‘‘हाँ, यह तो करना ही होगा। नहीं तो लोग समझेंगे कि आपको किसी नाजायज़ काम करने के लिए रिश्वत मिली है।’’
‘‘इस रुपये की अदायगी कब करनी होगी?’’
‘‘यह रुपया भगवान देगा, आपको देने की ज़रूरत नहीं है।’’
‘‘वह कहाँ से देगा?’’
‘‘बाबूजी! भापा बहुत बड़ा डॉक्टर बनेगा। लाखों कमाएंगा और उसमें से यह दस हजार भी दे देगा।’’
‘‘भाई, नूरे! देख लो, अभी उसकी शादी करनी है। उस पर बहुत रुपया खर्च करना है और फिर भगवान के ससुराल वाले बड़े आदमी हैं। उनकी लड़की का नाज़-नखरा भी होगा। मैंने तुमको पहले ही कहा था कि मकान-जैसी फ़जूल बात के लिए मेरे पास रुपया नहीं है।’’
‘‘बाबूजी! मैंने आपसे माँगा नहीं! यह मेरे और भगवान के विचार करने की बात है।’’
भगवानदास को इस उधार की चिन्ता थी। उसको जब पता चला कि दस हज़ार रुपया खर्च हो गया है तो उसने अपने पिता से पूछ लिया, ‘‘अब इस रुपये का भुगतान कैसे होगा?’’
लोकनाथ और रामदेई दोनों बैठे थे। भगवानदास के इस प्रश्न पर लोकनाथ ने कह दिया, ‘‘मैंने नूरुद्दीन को कह दिया था। अभी मुझे तुम्हारी शादी करनी है और मेरे पास मकान के लिए रुपया नहीं है।’’
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