उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो उसने क्या कहा था?’’
‘‘कहता था कि मुझको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान जब कामने लगेगा तो दे देगा।’’
‘‘तो मेरी कमाई पर पहले ही ऋण का बोझ लादा जा रहा है?’’
‘‘वह कहता था कि तुमको अपनी प्रैक्टिस चलाने के लिए एक अच्छा मकान और चिकित्सालय चाहिए और उसने तुम्हारे लिए सब प्रबन्ध नीचे की मंजिल पर कर दिया है।’’
‘‘पर पिताजी! मुझको तो यह उम्मीद दिलाई जा रही है कि मुझको कॉलेज में ही नौकरी मिल जाएगी।’’
‘‘सत्य? यह तो बहुत खुशी की बात है। क्या वेतन मिलेगा?’’
‘‘अभी तो कम ही मिलेगा। मगर तरक्की होते-होते दो हजार तक मिलने लगेगा।’’
‘‘ठीक है बेटा! तुम नौकरी कर लेना और कर्ज़ की बात मैं विचार कर लूँगा।’’
लोकनाथ का विचार था कि एक-आध बड़ा-सा ठेका और दिलवा दिया तो बस मकान हज़म हो जाएगा।
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