उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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करीमा भगवानदास की माँ से मिलने आया करती थी। अब तो वह मुहल्ले में चर्चा की विषय बनने लगी थी। मुहल्ले में एक ब्राह्मणी विधवा राधा रहती थी। वह गौरी की माँ कहाती थी। गौरीशंकर राधा का लड़का था और पुरोहिताई का काम करता था। उसका यजमानों के घर आना-जाना रहता था। गौरीशंकर की पत्नी सत्यवती भी पूजा-पाठ करा लेती थी। वह एक दिन रामदेई के घर कथा करने आई तो उसके साथ करीमा भी घर में प्रवेश करने लगी। करीमा उस समय बुर्का पहने हुई थी। सत्यवती घर में जाते-जाते रुक गई। करीमा ने उसे अपने से दूर हटते देखा तो हँस पड़ी, परन्तु रुकी नहीं और घर में चली गई। सत्यवती घर में गई तो, मगर उसको यह बात कुछ ठीक प्रतीत नहीं हुई। वह सीढ़ियाँ चढ़ती हुई विचार कर रही थी कि वह बच गई। एक मलेच्छ का स्पर्श होने वाला था। वह सत्यनारायण की कथा करने आई थी। घर में स्नान कर शुद्ध-पवित्र हो, वह चली थी। इस कारण वह एक मुसलमान औरत से छूते-छूते बची, तो अपना अहोभाग्य मानने लगी थी।
ऊपर की मंजिल पर वह पहुँची तो जिस कमरे में कथा होने वाली थी, उसके बाहर खूँटी से बुर्टा टँगा देखा। यह करीमा ने कमरे में जाते समय उतार दिया था। कमरे में कुछ स्त्रियां बैठी थीं और सब खिलखिलाकर हँस रही थीं। उनमें वह करीमा सबसे जोर से हँस रही थी।
सत्यवती ने द्वार पर खड़े हो देखा और वहीं खड़ी रह गई। रामदेई ने कह दिया ‘‘आओ पंडिताइन! आ जाओ!’’
‘‘पूजा कहाँ होगी?’’
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