उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘इसी जगह, आ जाओ।’’
‘‘यहाँ कैसे हो सकती है?’’
‘‘क्यों, यहाँ क्या है?’’
सत्यवती अपने मन की बात बता नहीं सकी। करीमा का चाँद समान उज्ज्वल और अति सुन्दर मुख अभी भी उसकी ओर देखकर हँस रहा था। पंडिताइन के कहने पर कि पूजा यहाँ नहीं हो सकती, करीमा समझ गई। वह एकाएक उठी और भगवान की माँ से कहने लगी, ‘‘माँजी! मैं फिर आऊँगी।’’ इतना कहकर वह कमरे से बाहर निकलने लगी तो पंडिताइन के सामने आ खड़ी हो गई। पंडिताइन द्वार में खड़ी, पूजा किसी अन्य कमरे में करने के लिए कहने ही वाली थी। करीमा ने कह दिया, ‘‘पंडिताइन बहिन! ज़रा रास्ता छोड़ दो।’’’
सत्यवती तो पहले ही एक ओर हट जाने वाली थी। इससे वह एक ओर हट गई। करीमा बाहर निकली और खूँटी से लटके बुर्के को उसने उतारा, पहना और सीढ़ियों से नीचे उतर गई।
रामदेई करीमा को रोकना चाहती थी, परन्तु वह पंडिताइन के साथ झगड़े के डर से चुप रही। पंडिताइन को सीढ़ियाँ उतरता हुआ बुर्का हँस रहा सुनाई दिया। इससे उसके क्रोध की मात्रा कुछ अधिक ही हुई थी।
पंडिताइन ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘‘यजमानिन! इसको किस लिए बुला रखा था?’’
‘‘बुलाया नहीं था। वह लड़के के दोस्त की बीवी है और हमारे घर में आती-जाती है।’’
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