लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


पंडिताइन ने विचार किया और यह समझ कि अब तो वह चली गई और कदाचित् अब वह इस घर में आयेगी ही नहीं। उसका विचार था कि इतनी बेइज्ज़ती के बाद तो कुत्ता-बिल्ली भी घर से निकल जाते हैं। उसने अपने मन को तसल्ली दी। अतः वह पूजा पर बैठ गई और एक घंटा-भर पूजा तथा कथा सुनाकर, दान-दक्षिणा वसूल कर चल दी।

घर पर सत्यवती ने यही बात अपनी सास को बताई तो उसने कहा, ‘‘यह मुसलमान की बच्ची इनके घर में घुसी रहती है। मुझको तो दाल में कुछ काला प्रतीत होता है।’’

‘‘क्या काला हो सकता है?’’

‘‘तुमने उसकी सूरत देखी है?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘कैसी लगी है?’’

‘‘बहुत ही सुन्दर।’’

‘‘तो बस यही बात है। मुहल्ले की सब औरतें कह रही हैं कि भगवान की वह रखैल है।’’

‘‘क्यों, उसके अपना घरवाला नहीं है क्या?’’

‘‘है तो। मगर कुत्ते ही हड्डी का स्वाद है न!’’

‘‘तो माँ! शरणदास की पत्नी को कह दो न? वे भी तो हमारे यजमान हैं। उनकी लड़की का हित भी देखना चाहिए।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book