उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
बात राधा की समझ में आ गई। उसको सूझ नहीं रहा था कि क्या करे? भगवानदास अच्छा खूबसूरत जवान था। वह फुटबॉल का खिलाड़ी भी था। चलता था तो झूमता हुआ चलता था। राधा ने अपनी पतोहू का सुझाव मान लिया कि लोकनाथ के समधी से कहकर भगवानदास की सादी शीघ्र ही करा देना चाहिए, बस फिर यह लड़की भाग जाएगी।
उसी दिन वह शरणदास के घर जा पहुँची। शरणदास का लड़का रामकृष्ण घर पर ही था। शरणदास दुकान पर गया हुआ था। राधा पहुँची तो शरणदास की लड़की माला ने पंडिताइन को पाँव लागूँ कर पूछ लिया, ‘‘ताई, कैसे आई हो?’’
‘‘माला! माँ कहाँ है?’’
‘‘ऊपर है। बुलाऊँ उसको? कुछ काम है क्या?’’
‘‘हाँ! आई तो ऐसे ही थी, पर अब तुमको देखकर काम भी समझ में आ गया है।’’
तब तक रामकृष्ण की बहू दयारानी अपने कमरे से निकली और पंडिताइन को देख कर बोली–‘‘ताई! आओ न।’’
‘‘राम हैं न अन्दर?’’
‘‘हाँ! मगर वे तो जा रहे हैं।’’
राधा ने माला को कहा, ‘‘माला, जाओ। माँ को कहना पंडिताइन आई है। खाली हो तो आ जाए?’’
राधा दयारानी के साथ कमरे में गई तो रामकृष्ण जाने के लिए खड़ा हो गया। राधा ने कहा, ‘‘राम, ज़रा बैठो।’’
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