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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


रामकृष्ण ने खड़े-खड़े ही कहा, ‘‘हाँ बताओ ताई! क्या कहती हो?’’

‘‘मैं तो तुम्हारी माँ से केवल मिलने ही आई थी। मगर तुम्हारी बहन को देख विचार में पड़ गई हूँ। मैं पूछती हूँ इसका विवाह कब करोगे?’’

‘‘ताई! अगले वर्ष मई के महीने में भगवानदास की परीक्षा का परिणाम घोषित होगा तब विवाह कर देंगे।’’

‘‘पहले क्यों नहीं?’’

‘‘हम तैयार हैं मगर लड़का नहीं मानता।’’

‘‘क्या कहता है?’’

‘‘कहता है कि पढ़ाई में हर्ज होगा।’’

‘‘वाह! भला यह कैसे? पंडितजी पूर्ण ऋग्वेद कंठस्थ किए हुए थे। उनका विवाह तो बचपन में ही हो गया था। उनके घर में लड़के हुए तब भी वे मंत्र नहीं भूले। भला आजकल की पढ़ाई, वेद-मंत्रों के मुकाबले में क्या है?’’

‘‘तो ताई! उन्होंने कुछ कहा है?’’

‘‘उन्होंने से क्या मतलब?’’

‘‘लड़के के माता-पिता से, और किनसे?’’

‘‘वे बेचारे क्या कहेंगे! आप ज़ोर देंगे तो वे मान जाएँगे।’’

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