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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


तब तक रामकृष्ण की माँ मायारानी और माला दोनों नीचे आ गईं। पंडिताइन ने कह दिया, ‘‘माला! एक गिलास पानी तो लाओ।’’

माला लौट गई। बात पुनः आरम्भ हो गई। राधा ने कहा, ‘‘माया बहन माला को देख मन में विचार आया है कि यह अब जवान हो गई है। इसका विवाह हो जाना चाहिए।’’

‘‘परन्तु,’’ राम ने पूछ लिया, ‘‘ताई, हम उन पर जोर कैसे डाल सकते हैं?’’

‘‘उनको कहिए कि लड़का जवान हो रहा है। कहीं ऐसा न हो कि लड़के को कोई दूसरी ही फाँस ले। विवाह हो जाएगा तो बछड़ा खूँटे के साथ बँध जाएगा।’’

‘‘तो तुमने भी कोई बात सुनी है?’’

‘‘बात यह है कि लड़का जवान है। अस्पताल में नर्सें और दाइयाँ बहुत घूमती रहती हैं। सुना है, इनकी जमात में कुछ लड़कियाँ भी पढ़ती हैं।’’

‘‘तुमको तो डर ही है, हमें तो कुछ और ही सुनाई दिया है।’’

‘‘क्या?’’

राधा समझ रही थी कि किसी मुहल्ले वाले ने उस मुसलमान छोकरी की बात बता दी है। वह स्वयं कोई बात कहकर अपने सिर पर इल्ज़ाम नहीं लेना चाहती थी। इस कारण उसने विस्मय में ही पूछा।

इस समय माला जल लेकर आ गई। माया देवी ने अपनी लड़की को कह दिया, ‘‘माला! तुम ऊपर चली जाओ। देखो हम तुम्हारे विवाह की बातें कर रही हैं और तुमको यह बातें सुननी नहीं चाहिएँ।’’

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