उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
माला उलटे पाँव ही लौट गई। मगर जिस ढंग से बात कही गई थी। उससे तो माला के मन में उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गई कि बात सुननी चाहिए। कमरे के बाहर परदा टँगा था। माला कमरे से निकल आई, मगर परदे से कान लगाकर भीतर होनेवाली बातें सुनने लगी।
भीतर माला की माँ राधा से कह रही थी, ‘‘सामने एक मुसलमान ठेकेदार रहते हैं। सुना है कि उनके घर की कोई लड़की वहाँ घुसी रहती है।’’
‘‘मगर वह तो भगवान के बचपन के दोस्त की बीवी है। वह तो तब से इनके घर में आती है, जब से उसकी शादी हुई है।’’
राधा इस विषय में अपनी अनभिज्ञता प्रकट कर रही थी। वह जानती थी कि अगर लड़की शरीफ हुई तो व्यर्थ में उसके घरवाले से झगड़ा हो जाएगा और गौरीशंकर की जान आफ़त में आ जाएगी। इसलिए राधा ने कहा, ‘‘तुमने लड़की देखी है माया बहन!’’
‘‘हाँ, देखी है। बहुत ही सुन्दर है। रंग चाँद की तरह गोरा है।’’
‘‘परन्तु तुमको उसकी बाबत किसी प्रकार का शक नहीं होता? और फिर मैं तो भगवानदास के कॉलेज में जो आग सुलग रही है, उसके विषय में ही कह सकती हूँ। हमारे एक यजमान हैं सुधाकरजी। वे प्रोफेसर हैं। वे कुछ दिन पहले बीमार हुए ते उनकी पत्नी ने उनको हस्पताल में दाखिल करवा दिया। जब वे हस्पताल से निकले ते वहाँ से एक लौंडिया को साथ ले आए। अब उससे भी शादी कर ली है। पहली पत्नी बेचारी बहुत ही परेशान है।’’
‘‘मैं तो समझता हूँ, ‘‘रामकृष्ण ने कह दिया, ‘‘अगर उसको किसी से विवाह करना है तो कर ले। हम माला के विषय में उसके बाद विचार कर लेंगे।’’
|