उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘पर राम!’’ मायारानी ने कहा, ‘‘सात वर्ष हो गए हैं लोकनाथ की बीवी को खिलाते हुए। उस दिन तुम्हारे पिता हिसाब लगा रहे थे। दो हज़ार रुपए से ऊपर हम दे चुके हैं। वह सब फोकट में ही चला जाएगा।’’
‘‘तो यह बच कैसे जाएगा?’’
‘‘मैं बचाने की बात नहीं कर रही राम! मैं तो यह कह रही हूँ कि इस बात की नौबत ही न आए’’
अब राधा ने और रंग चढ़ा दिया। उसने कहा, ‘‘मान लो वह किसी कृस्तान की बच्ची को न भी घर लाए, परन्तु उससे सम्बन्ध बना ले तो माला की मुसीबत बन जाएगी। शादी हो जाएगी। एक तो जवानी का जोश ठण्डा हो जाएगा, दूसरे दो घरों की देख-रेख हो जाएगी। तीसरे माला भी उसको कुछ समझा सकेगी। जितना जोर पत्नी का होता है, उतनी तो माता-पिता का भी नहीं हो सकता।’’
यह सुन सब गम्भीर हो गए। मौन भंग किया मायारानी ने। उसने कहा, ‘‘मैं कल भगवानदास की माँ से मिल आती हूँ। देखें, वह क्या कहती है?’’
‘‘माँ! जाना है तो विवाह का मुहूर्त निकलवाकर जाओ और फिर उन पर ज़ोर डालो।’’
‘‘अगर माता-पिता ने यह कह दिया कि लड़का मान जाए तो उनको आपत्ति नहीं होगी, तब?’’
‘‘तो फिर मैं भगवानदास से मिल लूँगा। मैं आशा करता हूँ कि मैं उसको मना लूँगा।’’
|