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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...

6

करीमा ने अपने घरवाले को उसके दोस्त के घर में घटी घटना बताई तो नूरुद्दीन ने कुछ चिन्ता व्यक्त की। करीमा ने उसे गम्भीर देखा तो पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ है? खामोश क्यों हो गए हो?’’

‘‘यह तो ठीक नहीं हुआ।’’

‘‘क्या ठीक नहीं हुआ?’’

‘‘यही कि वहाँ पर कुछ लोग तुमसे नफ़रत करते हैं।’’

‘‘मुझसे क्यों नफ़रत करेंगे? मैंने उनका क्या बिगाड़ा है?’’

‘‘तुम मुसलमान हो। ये हमको मलेच्छ समझते हैं।’’

‘‘तो समझने दो। मैं तो मलेच्छ हूँ नहीं। रोज नहाती हूँ। दातुन-कुल्ला भी करती हूँ। रोज धुले कपड़े पहनती हूँ। खुदा को याद करती हूँ। मलेच्छ तो वे हैं जो मुझसे परहेज करते हैं।’’

‘‘यह तो ठीक है, करीमा! मैं कहता हूँ कि इससे तुम्हारी बेइज्ज़ती जो हुई है।’’

‘‘देखिए जी, जैसे पंडिताइन ने मुझको देखा और दूर हट गई, मैंने ऐसा समझा कि भंगन सामने से एक तरह हट जाती है। कभी वह हट नहीं सकती तो आवाज देकर उसको हटा दिया जाता है। ऐसा ही मैंने भी किया। जब मैं वहाँ से आने लगी तो मुझको उसे कहना पड़ा था कि वह मेरे लिए रास्ता छोड़ दे।’’

यह सुन नूरुद्दीन हँस पड़ा। फिर कुछ गम्भीर होकर बोला, ‘‘यह अपने दिल को तसल्ली देने के लिए ठीक है, मगर दूसरे क्या समझते हैं, सवाल तो यही है।’’

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