उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘जी नहीं! सवाल यह है कि हम क्या समझते हैं? पंडिताइन ने मुझको क्या समझा है, इससे मुझको क्या? मैं उसको अपने से घटिया समझती हूँ। मेरा रंग उससे गोरा है। नख्श तीखे हैं। मेरे कपड़े भी उससे ज्यादा साफ-सुथरे हैं। मेरे ख्यालात भी किसी तरह से गलीज़ (गन्दे) नहीं हैं। फिर कोई वज़ह नहीं कि वह मुझको नफ़रत के लायक समझे।’’
‘‘मगर ये हिन्दू, कम-से-कम इनमें से कुछ लोग बहुत ही बेवकूफ हैं।’’
‘‘पर मैं तो नहीं हूँ। एक बात और, जिनके घर मैं जाती हूँ, वे तो मेरे साथ बैठकर खाना भी खाते हैं।’’
‘‘अच्छा ऐसा करो। अब कल फिर जाना और देखना कि भगवान की माँ में कुछ फरक आया है?’’
इससे करीमा भी गम्भीर हो गई। फिर कुछ विचारकर कहने लगी, ‘‘अच्छा! मैं कल जाकर पता करूँगी।’’
अगले दिन करीमा गई तो भगवानदास की माँ के पास भगवानदास की सास बैठी थी। करीमा के आने पर रामदेई ने उसे बुलाकर उसको अपने पास बिठा लिया और कहा, ‘‘जानती हो इनको?’’
‘‘जी, इनके दीदार पहले भी किए हैं। ये आने वाली भावज की माँ हैं न?’’
‘‘हाँ! ये कहने आई हैं कि भगवान की शादी जल्दी कर देनी चाहिए।’’
‘‘शादी तो माताजी, करनी ही है। दो महीने पहले क्या और बाद में क्या?’’
‘‘बेटा! उसकी परीक्षा में अभी छः महीने पड़े हैं।’’
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