उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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विभूतिचरण सराय में ठहरा तो नई बनी दुकान पर राधा बैठी चने भून रही थी और रामकृष्ण अभी कुएँ की जगत पर बैठा जल पिला रहा था।
विभूतिचरण को रथ से उतर राधा की ओर देख रामकृष्ण आगे बढ़कर चरण स्पर्श करने लगा। विभूतिचरण ने आशीर्वाद दिया और पूछा, ‘‘आगरे से कोई लोग आए हैं।’’
‘‘हाँ। वे उस बड़े दालान में बैठे हैं।’’
विभूतिचरण के आने पर तुरन्त विचार विनिमय होने लगा। विभूतिचरण ने रामकृष्ण से कहा, ‘‘देखो रामकृष्ण! तुम्हारी सराय इस ओर बनेगी।’’
‘‘वह तो पण्डित जी, चालू भी हो गई है। बीस-पच्चीस दिन पहले उसका मुहूर्त कर चुका हूँ।’’
‘‘ठीक है। वह तुम्हारी हानि के प्रतिकार में था। यह इधर का भवन हिन्दू समाज की हानि के प्रतिकार में है। इमारत का यह भाग तुम इन सेठों को दे दो। यह यहाँ पर एक बहुत बढ़िया शिवालय बनवाना चाहते हैं। इस पर एक लाख रुपए के लगभग व्यय करेंगे।
‘‘शिवालय बन जाने से तुम्हारी सराय भी उन्नति करेगी। परन्तु यह शिवालय इन सेठ जी की देख-रेख में बनेगा।’’
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