उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
वह अपने कपड़ों का थैला मुहरों की थाली के ऊपर रखकर रथ पर बैठा तो रथ चल पड़ा। घर वापस जाते हुए उसका विचार था कि रामकृष्ण से बात करेगा कि वह इस इमारत का क्या करे। उस इमारत के एक ओर सराय बनवाई गई थी। उस भाग में कमरे और दालान थे। टट्टी, पेशाब, रसोईघर इत्यादि बने थे। मगर दूसरी ओर अधिकांश भाग में एक खुला प्रांगण था। उसमें एक ओर एक आगार बना था जिसके चारों ओर घूमने के लिए बरामदा था। उस कमरे के अगले भाग में छत डरवाई गई थी और पिछला भाग बिना छत के था।
विभूतिचरण का विचार उस कमरे में शिव की मूर्ति स्थापित करने का था। वहाँ बहुत ऊँचा मन्दिर का गोपुर और कलश बनवाने का विचार था। यह स्थान वह अकबर के धन से नहीं बनवाना चाहता था। इसके लिए उसने आगरा के कुछ धनी लोगों से बात की थी और उनका विचार था कि सरकारी इमारत बनाने वाले जब अपना काम समाप्त कर चले जाएँगे तो वे लोग उसे मन्दिर का रूप दे देंगे। इसके लिए उसने तीन नगर सेठों की एक समिति बना दी थी और इसी दिन समिति विभूतिचरण की प्रतीक्षा भटियारिन की सराय में कर रही थी।
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