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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘जहाँपनाह! यह ठीक है परन्तु राणा आपकी अतायत कबूल नहीं करेगा और उसके भाग्यफल में अभी उसकी मौत नहीं लिखी।’’

‘‘इसके लिए कुछ अनुष्ठान नहीं किया जा सकता? मैं उसकी मौत नहीं चाहता। मैं तो उस सिंह की अतायत की ख्वाहिश करता हूँ।’’

‘‘अनुष्ठान किया जा सकता है। पर वह अनुष्ठान आपकी कामयाबी को शीघ्र कर सकेगा, परन्तु उसकी पराजय नहीं कर सकेगा।’’

‘‘हम इस बरसात के बाद समर शुरू करेंगे। तब तक आप हमारे लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करें।’’

‘‘मैं आपके कल्याण की कामना करूँगा।’’

‘‘यह ठीक है।’’ इतना कह अकबर ने इस बार पुनः पाँच सौ अशरफियों की एक थैली उस रथ में रखवा दी जिसमें पण्डित जी को उसके गाँव भेजनेवाला था।

विभूतिचरण जब अपनी चादर और वस्त्रों का जोड़ा थैले में रखे हुए सराय में रथ में बैठने के लिए आया तो उस स्थान पर, जो रथ में उसके बैठने के लिए था, थैली पड़ी देखी। उसने पूछ लिया, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘रथवाहक ने समीप खड़े करीमखाँ की ओर संकेत कर दिया। करीमखाँ जानता था कि पण्डित शहंशाह से धन नहीं लेता। इस कारण उसने कह दिया, ‘‘पण्डित जी! शहंशाह यह आपको निर्धनों और ज़रूरतमंदों में बाँटने के लिए दे रहे हैं। वह समझते हैं कि निर्धनों की दुआ उन्हें ज़िन्दगी में कामयाब बनाएगी।’’

विभूतिचरण इसका यह अर्थ समझा कि शहंशाह ने यह धन उसके नाम पर पुण्य के कामों के लिए दिया है और पुण्य-पाप का निर्णय उस पर छोड़ा है। इस कारण वह चुप रहा।

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