उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
अगले दिन अकबर ने पण्डित विभूतिचरण को बुलाया और पैदा होने वाले शहजादे की तालीम की बात न कर सल्तनत की अन्य बातों के विषय में पूछताछ करता रहा। विभूतिचरण अकबर की मजबूरियों को देखता था। उसे विदित था कि कुछ वर्ष पहले राजस्थान के सब नरेशों का एक संघ बनाने का विचार किया गया था। राजाओं के प्रतिनिधियों का उदयपुर में सम्मेलन हुआ था और वे प्रतिनिधि वहाँ लड़ पड़े थे। उस सम्मेलन में अकबर की रुचि थी। वह राजस्थान संघ के साथ संधि करता तो देश का एक बहुत बड़ा भाग उसका मित्र और सहायक हो जाता। जब वे लड़ पड़े तो वह एक-एक के साथ संधि करने की नीति पर कार्य करने लगा। परिणामस्वरूप राजस्थान का एक भाग सदा दिल्ली-आगरा से लड़ता रहा। हिंदुओं के विचार से वह संघ दिल्ली के शहंशाह को मुसलमानों के विपरीत रख सकता था पर यह नहीं हो सका।
अकबर के मस्तिष्क में यह बात बैठी हुई थी कि वह हिंन्दुस्तान का काश्मीर से कन्याकुमारी तक निर्विवाद रूप से सम्राट् बन जाए। राजपूतों से उलझा रहने के कारण वह दक्षिण की ओर ध्यान नहीं दे सका था।
मेवाड़ और चित्तौड़ की विजय के विषय में विभूतिचरण से सम्मति की जा रही थी। विभूतिचरण ने अपनी गणना के अनुसार यह भविष्यवाणी की थी कि मेवाड़ विजय नहीं हो सकेगा। मेवाड़ बरबाद हो जाएगा, परन्तु वह पराजित नहीं हो सकेगा। अकबर समझ रहा था कि उसने जयपुर, मालवा, जैसलसेर इत्यादि अनेक राजस्थानी राजाओं से संधि कर मेवाड़ को दुर्बल कर दिया है और वह उसकी शक्ति का विरोध नहीं कर सकेगा।
‘‘पण्डित जी! हमारे सैनिकों का कहना है कि राणाओं का मान मर्दन करने का सबसे उचित समय है। इस समय उदयपुर का द्वेष जयपुर से चरम सीमा तक पहुँचा हुआ है।’’
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