उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मैं अपने पठान और मुगल सिपहसालारों को निकाल नहीं सकता। वे बागी हो जाएँगे और मेरे किसी रिश्तेदार को मेरे ही खिलाफ खड़ा कर मुझे मरवा देंगे अथवा किले में कैद कर रखेंगे।’’
‘‘यहाँ के हिंदू किसी हिंदू राजा की भी हिमायत नहीं कर सकते तो एक मुगल की कैसे करेंगे? देखो, महारानी! हम मुसलमान इस मुल्क में कितने हैं? एक बार बीरबल के कहने पर मैंने मर्दुमशुमारी कराई थी और पता लगा था कि कुछ लाख ही मुसलमान हैं। इनमें आधे से ज्यादा तो हिंदुओं से तंग आकर मुसलमान बने हैं। यह निरंजन देव की बात ही देख लो। उसके घरवालों ने ही उसे एक छोटी जाति लड़की से विवाह करने पर घर से बेदखल कर दिया था। भला ये लोग मेरी मदद कैसे और क्यों करेंगे? मैं इनके भरोसे यहाँ का बादशाह नहीं बन सकता। दूसरी ओर ये मुगल-पठान सिपाही ही हैं जिनके भरोसे मैं यहाँ का शहंशाह हूँ और अपनी सल्तनत बढ़ा रहा हूँ।
‘‘एक बात तुम्हें और बताता हूँ। निरंजन देव जब से नूरुद्दीन बना है, उसके भाई-बंधु उससे अच्छा सलूक करने लगे हैं। अब तो उसके भाई भी उसके लिए और उसकी भटियारिन बीवी सुंदरी के लिए तोहफे ले जाते हैं।’’
‘‘बताओ, ऐसी कौम से मैं क्या उम्मीद कर सकता हूँ?’’
जोधाबाई बात को समझती थी। उसके चाचा की एक लड़की थी। वह उदयपुर के राणा के परिवार में ब्याही गई थी। उसका पूर्ण परिवार ने बहिष्कार कर रखा था। वह स्वयं एक मुसलमान से ब्याह दी गई थी और उसको उसके माता-पिता और अन्य सब घर के लोग मिलने आते हैं, नज़र-न्याज़ भेजते हैं। उसका एक भतीजा तो आगरा में आकर ही रहने लगा था। इतना विचार कर वह चुप कर रही।
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