उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मगर तुम मुसलमान हो क्या?’’
‘‘मैं क्या हूँ–यह तो मैं जानती नहीं। हाँ, अब जो भी वहाँ आता है, मुझे मुसलमान कहता है। इससे मैं समझती हूँ कि मैं भी वही हूँ।’’
विभूतिचरण हँस पड़ा और बोला, ‘‘तुम ठीक कहती हो। जो भी माथे पर इस प्रकार तिलक लगाए वह पण्डित है तो फिर जो बुर्का पहने वह मुसलमान है।’’
‘‘लोग ऐसा ही कहते हैं।’’ सुन्दरी ने राधा के समीप भूमि पर बैठते हुए कहा, ‘‘पण्डित जी! शहंशाह की जो महारानी हैं उन्होंने मुझे अपने पास बिठा कर प्यार देते हुए कहा था कि आपने शहंशाह से मेरी सिफारिश की है और मैं अपने पति के साथ रहने के लिए छोड़ दी गई हूँ। वरना, वह कहती थीं और मुझे नगर चैन में भी बताया गया था कि वहाँ से भागनेवाली औरतों को पेड़ में फाँसी लटका दिया जाता है।’’
‘‘परन्तु ऐसे कोई मरता नहीं है। यह तो पुराने कपड़े उतार नये पहनने के समान होता है। नये वस्त्र पहनने पर तो प्रसन्नता होती है। इसलिए मरने का भय और शक करना व्यर्थ है।’’
‘‘इस पर भी मरने को जी नहीं चाहता।’’
‘‘मतलब यह कि तुम बहुत प्रसन्न हो?’’
सुन्दरी ने सिर उठाया और निरंजन की ओर देखा। बात राधा ने ही कही, ‘‘पण्डित जी! सब हिन्दू और मुसलमान इसे मुसलमान ही कहते हैं। मुझे तो जब यह बुर्का उतारकर मेरे पास बैठती है तो वही सुन्दरी समझ में आती है जो पहले थी। यह लड़की मुझे अपने लड़कों से भी अधिक प्यारी थी। अब भी वैसी ही है।’’
‘‘तो तुमने व्रत और प्रायश्चित्त किसलिए किया था?’’
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