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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘कैसे ले जाएगा?’’

‘‘वह जानना चाहता है कि तुम उसके साथ चलने को तैयार हो?’’

‘‘चलने को तो तैयार हूँ, मगर मरने के लिए नहीं।’’

‘‘तो उसे कह दूँगी।’’ मीना ने कहा और अँगूठी सुंदरी के सामने रखते हुए बोली, ‘‘तो यह ले लो।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम्हारी है।’’

‘‘मैंने इस पर अपना हक छोड़ दिया है।’’

मीना ने न तो हाथ और अँगूठी पीछे की और न ही वह वहाँ से गई। सुंदरी ने पूछा, ‘‘अब क्या चाहती हो?’’

‘‘सुंदरी बहन, यह ले लो। पंडित ने परमात्मा के सामने तुम्हें दिलवाई है। इसे लेने से इनकार कैसे कर सकती हो?’’

‘‘मगर लेने का अर्थ यह है कि मैं उसके साथ जाने को तैयार हूँ।’’

‘‘तो तुम तैयार नहीं हो?’’

‘‘मुझे उसके साथ जाना चाहिए?’’

‘‘वह बहुत ही भला युवक प्रतीत होता है।’’

‘‘शहंशाह से भी अधिक?’’

‘‘शहंशाह तो कभी भले होते ही नहीं। तुमसे पहले यहाँ बीसियों आ चुकी हैं।’’

‘‘और वे कहाँ हैं?’’

‘‘कुछ तो आगरा के महलों में खिदमतगारिन बन गई हैं। कुछ सैनिकों में बाँट दी गई हैं और दो-चार को उस पेड़ से फाँसी लटका दिया गया था।’’

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